Thursday 7 September 2023

योगेश्वर श्रीकृष्ण


                                                       ।।।।  जय श्री कृष्णा ।।।।            

                                              


हमनें योगेश्वर कृष्ण को सिर्फ और सिर्फ नाच गाने, मनोरंजन और चुटकुलों से जोड़कर रख दिया हैं,
हम क्यो जानते है योगेशवर कृष्ण के बारे में ??
सिर्फ इतना कि वो रास रचाते थे??
माखन खाते थे??
दही दूध चुराते थे ??
बंसी बजाते थे ??
अगर सिर्फ इतनी ही बातोंं से आप माधव को जानते है तो आप कुछ भी नहीं जानते है उनके बारे में..

आइए बताते हैं आपको कुछ ऐसी बातें जो कि आजकल किसी भी युवा के जुबान से सुनने को नहीं 
मिलती हैंं ।।

1 - सबसे बड़े योद्धा थे भगवान कृष्ण, महाभारत के युद्ध में यदि योगेश्वर कृष्ण ने हथियार उठा लिए होते तो
      शायद ही वो युद्ध कुछ छणों से भी ज्यादा चल पाता ।।

2 - संयम और धैर्य की प्रतिमूर्ति थे  भगवान कृष्ण, उनके हृदय प्रिय पांडवों के साथ हुए इतने अन्याय के बावजूद 
      शांति दूत  बनकर हस्तिनापुर गए और ये जानते हुए भी कि दुर्योधन कभी भी किसी शांति प्रस्ताव को स्वीकार
      नहीं करेगा और वो सिर्फ और सिर्फ उनका अपमान ही करेगा, वो हस्तिनापुर गए और शांति प्रस्ताव पर सभी 
      को राजी करने का प्रयास किया ।

3 - गलतियों की सीमा लांघ जाने पर किसी को क्षमा नहीं करते है, भगवान श्रीकृष्ण , शिशुपाल भले ही उनका सगा
      संबंधी था, लेकिन जब 100 गालियों की सीमा पार हुईं तो सुदर्शन प्रगट हुआ और शिशुपाल को और गलतियां 
     करने लायक भी नहीं छोड़ा ।।

4 - जब हस्तिनापुर की भरी सभा में दुर्योधन ने शांतिदूत भगवान श्रीकृष्ण को बंदी बनाने की बात कहीं तो, 
     भगवान ने सिर्फ इतना कहते हुए अपना विराट स्वरूप दिखाया कि यदि हमें बंदी बना सकते हो तो अवश्य
     कोशिश करके देख लो और उसके बाद जो हुआ वो तो जग विदित है ।

5 - शांंति जब संभव ना रही और महाभारत के रण में जब पितामह भीष्म के बाणों का जवाब देने से अर्जुन ने 
     इंकार कर दियो तो महाभारत के युद्ध में हथियार ना उठाने की सौगंध खाने वाले योगेश्वर रथ का पहिया लेकर
     जब  पितामह भीष्म की ओर दौड़े तो महारथी भीष्म के हाथ से भी हथियार छूट गए और वो दोनों हाथ जोड़े
     माधव के इस रूप को देखते रह गए ।

ऐसी ही अनगिनत बातें है जो आज हम युवाओं के मन में व्यापत होनी चाहिए लेकिन हैं नहीं ।।
तो योगेश्वर श्रीकृष्ण को पढ़ते रहिए और उनके बताए धर्म के मार्ग पर चलते रहिए,, 
                                                  























Wednesday 5 August 2020

अयोध्या विवाद के प्रमुख चरित्र भाग 2 ( The main characters of AYODHYA dispute part 2

(11) हनुमान प्रसाद पोद्दार 
जिस समूह ने 22-23 दिसंबर की रात बाबरी ढाँचे में मूर्तियां रखी थी, हनुमान प्रसाद पोद्दावर जी उसके इंतेजामकर्ता थे। प्यार से दोस्त प्रिय उन्हें 'भाई जी' कहते थे । भाई जी के ही जिम्मे उस रोज मूर्तियों की स्थापना और प्राणप्रतिष्ठा के इंतेजाम थे । सहज विनम्र और धर्म के लिए कुछ भी कर जाने वाले भाई जी हिंदुत्व के प्रबल समर्थक थे । गीताप्रेस , पुस्तकें और भाई जी एक दूसरे के पर्याय थे । सेठ जयदयाल गोयनका ने गीताप्रेस की स्थापना की थी । जिसे हनुमान प्रसाद पोद्दावर ' भाई जी ' ने वट वृक्ष का रूप दिया । वे क्रांतिकारी चितरंजन दास, अरविंद , सुरेन्द्रनाथ बनर्जी और विपिन चंद्र पाल जी के संपर्क में भी थे , इसीलिए अंग्रेजों से भाई जी को बांकुड़ा जिले के शिमलापाल गाँव में 21 दिनों तक नजरबंद भी रखा था । उन्होंने ' कल्याण ' पत्रिका का राम जन्मभूमि अंक निकाल कर इस आंदोलन को रफ्तार दी ।

(12) महंत रामचन्द्रदास परमहंस 
रामचन्द्रदास परमहंस अयोध्या आंदोलन के इकलौते चरित्र हैं, जो मूर्तियाँ रखे जाने से लेकर ध्वंस तक की घटनाओं के मुख्य किरदार थे ।
छपरा ( बिहार ) के भगेरन तिवारी के बेटे चंद्रेश तिवारी जब 1930 में अयोध्या आये तो आयुर्वेदाचार्य थे । दिगंबर अखाड़े की छावनी में जब वे परमहंस रामकिंकरदास से मिले तो उनका नाम पड़ा  ' रामचन्द्रदास ' और काम मिला रामजन्मभूमि मुक्ति का । 15 साल की उम्र में ही वे साधु बन गए ।
सन्  1934 में वे इस आंदोलन से जुड़े । वे हिंदू महासभा के शहर अध्यक्ष भी थे । सन् 1975 में वे पंच रामानंदीय दिगंबर अखाड़े के महंत बने और सन् 1989 में रामजन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष । वे संस्कृत के अच्छे जानकार थे । वेदों और भारतीय शास्त्रों में उनकी अच्छी पैठ थी । वे मुँहफट, आक्रामक और मजबूत संकल्पशक्ति वाले जिद्दी साधु थे । सन् 1949 में मूर्ति रखने वालों की टोली में वे जूनियर सदस्य थे । 1 जनवरी , 1950 को विवादित इमारत ओर मालिकाने हक और पूजापाठ के अधिकार को लेकर उन्होंने फैजाबाद की अदालत में मुकदमा दायर किया । अप्रैल, 1984 में नई दिल्ली में हई पहली धर्मसंसद परमहंस रामचन्द्रदास जी की अध्यक्षता में श्री रामजन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति का गठन हुआ । सन् 1985 में उन्होंने घोषणा की थी कि ताला नही खुला तो वे आत्महत्या कर लेंगे । दिगंबर रामानंद सम्प्रदाय का प्रमुख अखाड़ा है।
1990 में कारसेवकों के जिस जत्थे ओर तत्कालीन मुलायम यादव सरकार ने गोली चलवाईं उसकी अगुवाई परमहंस रामचन्द्रदास ही कर रहे थे ।
31 जुलाई, 2003 को अंतिम साँस तक वे रामजन्मभूमि के लिए लड़ते रहे ।

(13) नानाजी देशमुख 


11 अक्टूबर, 1916 को महाराष्ट्र के हिंगोली जिले के कडोलि कस्बे में जनमे चंडिका दास अमृतराव देशमुख को देश नाना जी के नाम से जानता है ।
नाना जी मूर्ति रखे जाते वक़्त अयोध्या में मौजूद थे । नानाजी का लम्बा और घटनापूर्ण जीवन अभावों में बीता । लेकिन अभावों के बावजूद उन्होंने बिरला इंस्टीट्यूट  से उच्च शिखा प्राप्त की । 1930 में वे आरएसएस में शामिल हो गए । 1940 में वे अपना घरबार त्याग कर आजीवन समाज सेवा में लग गए । आज देशभर में शिखा की मजबूत चेन सरस्वती शिशु मंदिर की स्थापना नानाजी ने गोरखपुर में की थी । अप्रैल 1974 में सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन के दौरान पटना के गांधी मैदान में जब जेपी पर लाठियां चली तो नानाजी ने उनके ऊपर लेटकर उन्हें बचाया था । 6 दिसंबर  1992 में जब बाबरी मस्जिद का ढाँचा गिराया गया तो उन्होंने कहा की ये दुर्भाग्यपूर्ण था, ये प्रस्तावित कारसेवा का हिस्सा नही था लेकिन इसके लिए क्षमाशील होने की जरूरत नहीं थी ।
2019 में नाना जी देशमुख को भारतरत्न से सम्मानित किया गया ।

(14) बाबा राघवदास 


 कांग्रसी होने के बावजूद बाबा राघवदास की रामजन्मभूमि आंदोलन में अटूट आस्था थी । विवादित इमारत में मूर्ति रखने वाले पंच प्यारों में वे भी थे । पुणे के राघवेंद्र शेषप्पा पाचापुचकर को कांग्रेस राजनीत में और जन्मभूमि आंदोलन में बाबा राघवदास के नाम से जाना जाता है । वे चित्तपावन ब्राह्मण थे ।1891 के प्लेग में राघवेंद्र शेषप्पा पाचापुचकर के पूरे परिवार का सफाया हो गया, 
 उसके बाद वे उस वक़्त के मशहूर संत मौनी बाबा के पास पहुँचे और दीक्षा ग्रहण की । उसके बाद वे 
 योगिराज अनंत महाप्रभु के सानिध्य में भी रहे ।
 1920 में वे कांग्रेस में शामिल हुए, 1948 में अयोध्या विधानसभा में उपचुनाव हुआ । पंडित गोविंद बल्लभ पंत को आचार्य नरेंद्र देव से हिसाब चुकता करना था । काँग्रेस ने आचार्य के खिलाफ बाबा को मैदान में उतार दिया । पंडित जी ने को कांग्रेसी मुख्यमंत्री होने के बावजूद राममंदिर मुद्दे के पक्ष में आक्रामक प्रचार किया क्यों की आचार्य नरेंद्र देव को अयोध्या और फैजाबाद के मुसलमानों का समर्थन प्राप्त था । कांग्रेस ने प्रचारित किया की नरेंद्र देव मंदिर के विरोधी हैं, आचार्य बाबा से चुनाव हार गए । यह भारतीय लोकतंत्र में ' राममंदिर ' मुद्दे का पहला टेस्ट था ।

(15) गोपाल सिंह विशारद 


गोपाल सिंह विशारद फैजाबाद के रहने वाले हिंदुत्ववादी वकील थे । विशारद उनकी डिग्री थी । किसी विषय में प्रवीण होने के बाद ही उन्हें विशारद की डिग्री मिली थी । व हिन्दू महासभा के फैजाबाद इकाई के सचिव थे । अयोध्या आंदोलन से सीधे जुड़ वहाँ की गतिविधियों के लिए हिन्दू महासभा ने एक संगठन बनाया था - ऑल इंडिया रामायण महासभा, विशारद इसके संयुक्त सचिव थे । विशारद ने ही विवादित इमारत में मूर्तियाँ रखे जाने के बाद 5 जनवरी, 1950 को फैजाबाद की अदालत से  मूर्तियाँ ना हटाए जाने का आदेश सरकार को दिलवाया था ।
वे अयोध्या विवाद के मूल मुकदमे के वादी थे । जब मूर्तियाँ रखी जा रही थी  । उसी रात वे फैजाबाद की एक प्रेस में ' भगवान प्रगट हो गए हैं, जन्मभूमि चलो ', इस अपील के पर्चे छपवा रहे थे ।

(16) गुरुदत्त सिंह 


गुरुदत्त सिंह 1949 में फैजाबाद के सिटी मजिस्ट्रेट थे । अपनी धुन के पक्के इस प्रांतीय सिविल सेवा के अफसर की हिन्दू महासभा से करीबी थी । इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक गुरुदत्त सिंह ने नौकरी में कभी भी हैट नही लगाई वे हमेशा पगड़ी पहनते थे । जिलाधिकारी नायर की तरह ही गुरुदत्त सिंह भी अयोध्या की विवादित इमारत में मूर्तियाँ रखने वालों को सुविधाएं मुहैय्या करवा रहे थे । दरअसल वे इस कथानक के रचयिता भी थे ।
उनके बेटे गुरुबसंत सिंह के मुताबिक उनके घर पर अकसर रात में जिलाधिकारी नायर और अभिरामदास जी के साथ मूर्तियाँ रखने की रणनीति बनती थी । गुरुबसंत उस समय 15 साल के थे । उनके मुताबिक जब मूर्तियाँ रात में रखी गईं, उस सुबह पिताजी भगवान के सामने खड़े होकर प्रार्थना कर रहे थे, '' प्रभु जो हो रहा है हो जाने दीजिये '', जिस ढाँचे को तोड़ा गया, उसके गर्भगृह में रामलला के अलावा गुरुदत्त सिंह की तस्वीर भी लगी थी ।

(17) अब्दुल बरकत 

यही सज्जन 22 और 23 दिसंबर की रात को विवादित इमारत की गार्ड ड्यूटी पर थे । इनकी ड्यूटी 12 बजे से थी लेकिन ये जनाब ड्यूटी पर 1 बजे पहुँचे, जब ये पहुँचे तब इनकी नजरों में चमत्कार हो चुका था । इनके पूर्ववर्ती गार्ड शेरसिंह ने योजना को अंजाम दिलवा दिया था । चूँकि ये ड्यूटी पर देर से आये थे, इसलिए इन्होंने पुलिस को वही कहानी बताई जो इन्हें मूर्ति रखने वालों ने बताई । अब्दुल बरकत ने पुलिस से कहा कि , " यकायक मैंने मस्जिद के अंदर तेज रोशनी देखी मेरी आँखे चौंधियाँ गईं । मुझे कुछ समझ नही आ रहा था । जब रोशनी कम हई तो मैंने यह चमत्कार देखा, वहाँ भगवान राम अपने तीन भाइयों के साथ प्रगट हुए थे ।"

(18) मुहम्मद इस्माइल

मूर्ति रखे जाते वक्त इस्माइल बाबरी मस्जिद के मुअज्जिन थे । मुअज्जिन का काम होता है नमाज के लिए अजान देना, चूँकि इस मस्जिद में नमाज नही होती थी, इसलिए अजान देने की जिम्मेदारी इनपर नही थी, ये उस जगह की साफ सफाई का काम देखते थे । 22 दिसंबर की रात जब बाबा अभिराम दास और दूसरे नागा बाहुबली जब इमारत में मूर्ति लेकर आते है तो इस्माइल से उनकी हाथापाई होती है । इस्माइल ने उन्हें रोकने की कोशिश की तो बैरागियों ने इनकी पिटाई कर दी , उसके बाद वे डर के मारे कभी इस राह पर लौट कर नही आये ।

(19) प्रिया दत्त राम

प्रिया दत्त राम 1949-50 में फैजाबाद अयोध्या म्युनिसिपिल बोर्ड के अध्यक्ष थे । मूर्तियाँ रखे जाने के बाद जिलाधिकारी ने बाबरी इमारत को झगड़े के अंदेशे में अपने कब्जे में ले लिया । प्रिया दत्त राम को उस संपत्ति का ' रिसीवर ' बनाया गया ।5 जनवरी, 1950 को बाबू प्रिया दत्त राम ने इमारत का जिम्मा सँभाला । उसकी देखरेख और अंदर पूजा-पाठ की एक कार्ययोजना जिलाधिकारी को सौंपी । प्रिया दत्त राम ने अपनी रिपोर्ट में कहा की रामलला एक देवता हैं, जिन्हें रोज खाने, नहलाने और वस्त्र पहनाने की जरूरत है । इसलिए मंदिर में पुजारियों और भंडारी की नियुक्ति होनी चाहिए और इनके लिए एक गेट का ताला खोला जाना चाहिए। 
रिसीवर की रिपोर्ट पर चार पुजारी और एक भंडारी की नियुकि हुई । इनके लिए इमारत का एक छोटा दरवाजा खोला गया , जिससे अंदर जाकर वो पूजा-पाठ कर सके । मंदिर समर्थकों ने रामजन्मभूमि कार्यशाला में इनकी तस्वीर भी टाँग रखी हैं ।

(20) महंत अवेद्यनाथ 

महंत अवेद्यनाथ राम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति के पहले अध्यक्ष थे । विवाद के हल के लिए सरकारों से सबसे ज्यादा बातचीत करने वालों में से एक थे । वे पाँच बार लोकसभा के सदस्य रहे । चंद्रशेखर और विश्वनाथ प्रताप सिंह से इनके करीबी रिश्ते थे । उत्तराखंड के पौढ़ी जिले में जनमें कृपाल सिंह बिष्ट 1940 में अवेद्यनाथ बन गए और 1942 में दिग्विजय नाथ जी के उत्तराधिकारी नियुक्त हुए । 1969 में दिग्विजयनाथ जी की  मृत्यु के पश्चात ये नाथपंथी कनफटा सम्प्रदाय की शीर्ष गद्दी गोरक्षनाथ पीठ पर बैठे । अवेद्यनाथ मंदिर निर्माण के लिए उच्च अधिकार प्राप्त समिति राम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष भी रहे । 6 दिसंबर,1992 के ध्वंस के मुख्य आरोपियों में महंत अवेद्यनाथ भी रहे । वे हिन्दू महासभा से पहली बार चौथी लोकसभा में चुने गए । उसके बाद तीन बार लगातार गोरखपुर लोकसभा से सांसद बनते रहे । महंत अवेद्यनाथ जी  गोरखपुर की मनीराम विधानसभा सीट से पाँच बार विधायक भी रहे ।






Wednesday 22 July 2020

अयोध्या विवाद के प्रमुख चरित्र भाग1 ( The main characters of AYODHYA dispute part 1 )

अयोध्या विवाद के कुछ ऐसे चरित्र हैं, जो उसकी हर करवट में दर्ज हैं । लेकिन लोकस्मृति में वो गुमनाम हैं । बड़े बड़े आंदोलनकारी नामों ने उन्हें इतिहास के कालपात्र में ढेकल दिया है । पर अयोध्या उन्हें जानती है । इस विवाद को समझने के लिए इनसे आपकी पहचान जरूरी है , ये सभी इस विवाद की नींव में है लेकिन नींव की ही तरह पूरी तरह दिखाई नही देते है ।

(1) जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर 


दिल्ली का पहला मुगल बादशाह ( 1526-30 )  इसी के राज में बाबरी मस्जिद बनी थी । बाबर के पिता तैमूर लंग के वंशज और माँ कुलमुत निगार खाँ चंगेज खाँ के परिवार से थी  । 1483 में जनम लेने के बाद महज 11 साल की उम्र में बाबर पिता का वारिस बना । उसकी जागीर फरगना अब चीनी तुर्किस्तान में है । 21 अप्रैल , 1526 को इब्राहिम लोदी को मारकर बाबर दिल्ली को शासक बना । अपने पिता की हत्या के बाद ही उसने रोजाना डायरी में नोट्स लेने शुरू कर दिए थे । यही डायरी पाँच शताब्दी तक गुम रहने के बाद ' बाबरनामा ' बनी । इस डायरी में 18 साल का रिकॉर्ड नष्ट हो गया है, इसीलिए इसमें बाबरी मस्जिद का जिक्र नहीं है । डायरी में बाबर ने 25 मई, 1529 की एक घटना का जिक्र किया है । " एक रात जब पाँच घड़ियाँ बीत चुकी थीं । मैं लिखने में व्यस्त था, उसी समय अचानक आँधी आई , मैं अपनी चीजें सँभाल पाता, तभी तंबू घसक गया । मेरे सिर में चोट आयी । किताब के पन्ने पानी से तर बतर हो गए । बड़ी मुश्किल से किताब के बाकी पन्ने सँभाल पाया । " उसकी डायरी तुर्की भाषा में लिखी गयी थी जिसका अकबर ने फारसी भाषा में अनुवाद करवाया ।


(2) मीर बाकी 

बाकी ताशकंदी को मीर बाकी के नाम से जाना जाता है । वह बाबर का सेनापति था । शिया मुसलमान मीर बाकी ताशकंद ( मौजूदा समय में उजबेकिस्तान की राजधानी ) का रहने वाला था। बाबर ने उसे अवध प्रांत का गवर्नर बनाकर भेजा था । मीर बाकी ने 1528 से 1529 के बीच रामजन्म स्थान पर बाबरी मस्जिद बनवाई थी । मार्च 1528 से जून 1529 तक मीर बाकी अयोध्या में ही रहा । फैजाबाद ( वर्तमान में अयोध्या ) के सहनवा गाँव में मीर बाकी ने दम तोड़ा था । यहीं उसकी मजार भी है ।


(3) अभिराम दास 


दरभंगा, बिहार के रहने वाले नागा वैरागी अभिराम दास उस समूह के नेता थे, जिन्होंने 22-23 दिसंबर, 1949 की रात को विवादित इमारत में रामलला की मूर्ति स्थापित की थी । रामानंदी संप्रदाय के इस नागा वैरागी का संबंध निर्वाणी अखाड़े से था । लंबे और बलिष्ठ अभिराम दास पढ़े लिखे नहीं थे । वे कुश्ती लड़ते थे । अखाड़े के दाँव-पेंच जानते थे । अयोध्या में उन्हें लड़ाकू साधु कहा जाता था । वे हिंदू महासभा के सदस्य थे, इसीलिए महंत दिग्विजय नाथ के करीबी थे । उन्हें रामजन्मभूमि का " उद्धारक बाबा " कहा जाता है । मूर्तियाँ रखने के खिलाफ जो एफ.आई.आर हुई, उसमें इन्हें मुख्य अभियुक्त बनाया गया था । उनका निधन 1981 में हुआ ।

(4) देवरहा बाबा

भारतीय संत परंपरा के अलौकिक साधु । उत्तरप्रदेश के देवरिया के पास लार में सरयू किनारे रहते थे । महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग में पारंगत । बाबा कहाँ से आए, कब जन्म हुआ, उनका जीवन आजतक लोगों के बीच रहस्य है । बाबा निर्वस्त्र रहते थे । रामभक्त थे । सरयू और गंगा के किनारे मचान बना पानी में ही रहते थे । देश-विदेश की नामी हस्तियाँ बाबा की भक्त थीं । राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी बाबा का आशीर्वाद लेने जाते थे । इंदिरा गांधी के सामने जब कोई समस्या आती तो समाधान के लिए बाबा के पास जाती थी । जनवरी 1984 में इलाहाबाद ( अब प्रयागराज ) कुंभ के मौके पर उस धर्मसंसद की अध्यक्षता बाबा ने ही की थी, जिसमें राममंदिर के शिलान्यास की तारीख 9 नवंबर, 1989 तय हुई थी । शिलान्यास के गतिरोध के बीच प्रधानमंत्री राजीव गांधी बाबा से मिलने गए । देवरहा बाबा ने राजीव गांधी से कहा, " बच्चा हो जाने दो "। बाबा के ही आदेश पर ही पार्टी में विरोध के बावजूद राजीव गांधी ने शिलान्यास करवाया ।

(5) स्वामी करपात्री जी महाराज 

करपात्री जी सन्यासी नेता थे । स्वामी करपात्री जी का असली नाम हरनारायण ओझा था । 
उन्हें  "धर्म सम्राट" कहा जाता था   अंजुली में जितना भोजन समाता, उतना ही भोजन करने के कारण वे करपात्री कहलाए । स्वामी जी उन साधुओं में नहीं थे, जो एकांत गुफा में बैठ मूक साधना करते थे । सनातन धर्म की रक्षा और पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव को रोकने के लिए उन्होंने आंदोलन चलाए ।  संस्थाएँ बनाईं । अखबार निकाला और 1966 में गोहत्या के खिलाफ संसद पर साधुओं के प्रदर्शन का नेतृत्व किया, इसी प्रदर्शन पर इंदिरा गांधी ने जम्मू कश्मीर पुलिस की टुकड़ी बुलवा कर गोलियां चलवाईं थीं क्यों की इंदिरा गांधी को डर था की दिल्ली पुलिस संतों पर गोली चलाने से मना ना कर दे । इस सरकरी हत्याकांड में दर्जनों साधु मारे गए थे । उनकी किताब " मार्क्सवाद और रामराज्य " बहुचर्चित हुई जिसे गीता प्रेस गोरखपुर ने प्रकाशित किया था । उन्होंने प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति के संरक्षण के लिए " धर्मसंघ शिक्षामंडल " बनाया । उन्होंने बनारस और कलकत्ते में ' सन्मार्ग ' अखबार निकाला । विधिवत सन्यासी बनने के बाद उन्होंने राजनीति में धर्म की स्थापना के लिए दंड उठाया । 
उन्होंने रामराज्य परिषद नाम का राजनैतिक दल बनाया । एक समय इस दल के लोकसभा में चार सदस्य थे और राजस्थान विधानसभा में 24 सदस्य थे । 
रामजन्मभूमि मुक्ति आंदोलन की नींव करपात्री जी ने ही रखी थी । बलरामपुर के राजा पटेश्वरी प्रसाद सिंह, महंत दिग्विजय नाथ और गोंडा के कलेक्टर के.के.के. नायर ने करपात्री जी के सामने ही रामजन्मभूमि की मुक्ति का संकल्प लिया था ।

(6) महंत दिग्विजय नाथ जी 

महंत दिग्विजय नाथ क्रांतिकारी साधु थे । वे अयोध्या के बाबरी ढाँचे में मूर्ति रखने वाले समूह में शामिल थे । आजादी की लड़ाई में "चौरा-चौरी" कांड के वे मुख्य अभियुक्त थे । वे नागपंथी कनफटा साधुओं की शीर्ष पीठ गोरक्षपीठ के महंत थे । जिस पीठ पर आजकल उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हैं । वे हिंदू महासभा के राज्य अध्यक्ष भी थे । दिग्विजय नाथ उदयपुर के उसी राणा परिवार से आए थे, जिसमें बप्पा रावल और महाराणा प्रताप का जन्म हुआ । उनके बचपन का नाम राणा नान्हू सिंह था । दिग्विजय नाथ पढ़े - लिखे और राजनैतिक सूझ बुझ वाले साधु थे । वे लॉन टेनिस में माहिर थे ।

(7) महाराजा पटेश्वरी प्रसाद सिंह 

गोंडा के ' बलरामपुर स्टेट ' के महाराज पटेश्वरी प्रसाद सिंह के राजभवन में ही अयोध्या में रामजन्मभूमि को मुक्त कराने की रणनीति बनी । 
महाराज अपनी हिंदू भावनाओं के कारण करपात्री जी और महंत दिग्विजय नाथ के नजदीक थे ।
1 जनवरी 1914 को जनमे पटेश्वरी प्रसाद की पढ़ाई अजमेर के मेयो कॉलेज में हुई । ब्रिटिश अफसर कर्नल हैंसन के संरक्षण में वे पले - बढ़े । घुड़सवारी और लॉन टेनिस के लिए वे दूर दूर तक जाते थे । के.के.के. नायर और दिग्विजय नाथ से दोस्ती का एक आधार लॉन टेनिस के प्रति तीनों का लगाओ भी था । महाराज अकसर धार्मिक यज्ञ करते । इन्हीं धार्मिक यज्ञों के बहाने साधु - संतों का जमावड़ा लगता । 1947 के शुरुआती महीनों में ऐसे ही यज्ञ में महाराज के यहाँ करपात्री जी की मौजूदगी में अयोध्या आंदोलन की रणनीति बनी थी ।

(8) मोरोपंत पिंगले 


मोरोपंत पिंगले अयोध्या आंदोलन के शिल्पी थे । इस आंदोलन को रामशीलाओं के जरिये घर - घर पहुँचाने वाले मोरोपंत जी महाराष्ट्र के चित्तपावन ब्राह्मण थे । बेहद सरल और विनम्र नागपुर के मौरिस कॉलेज के स्नातक पिंगले ने हमेशा नेपथ्य से काम किया । उन्होंने एक रणनीति के तहत प्रस्तावित मंदिर के लिए तीन लाख ईंटें भारत के हर गाँव में पुजवाईं । फिर गाँव से तहसील, तहसील से जिला, जिले से राज्य मुख्यालय होते हुए ये ईंटें ( शिलाएं ) अयोध्या पहुँचीं । इस कार्यक्रम दे देश भर के कोई 6 करोड़ लोग भावनात्मक रूप से इस आंदोलन से सीधे  जुड़े । एक झटके में ये आंदोलन गाँव - गाँव , घर - घर पहुँच गया । शिलापूजन, शिलान्यास, चरण पादुका, रामज्योति यात्राएँ सब पिंगले जी के दिमाग की उपज थीं । पर वे रहे हमेशा नेपथ्य में । पिंगले जी आरएसएस के पहले सरसंघचालक डॉ.हेडगेवार के हाथों गढ़े गए थे । मोरोपंत पिंगले जी के काम की शैली थी , सूत्रधार की भूमिया में रहना, कोई श्रेय नही लेना । सभी कुछ रचना, लेकिन दृष्टि से ओझल रहना । हिंदू जनमानस की चेतना में अयोध्या को जगाने का ऐतिहासिक काम करने के लिए वे इतिहास में दर्ज हैं ।

(9) अशोक सिंघल


अशोक सिंघल आजादी के बाद देश की विराट हिंदू एकता के रणनीतिकार थे । सिंघल 20 वर्षों तक विश्व हिंदू परिषद के प्रमुख रहे । 1942 में वे आरएसएस के प्रचारक बने । मीनाक्षीपुरम धर्मांतरण के खिलाफ दिल्ली के विज्ञान भवन में हुई पहली धर्मसंसद के कर्ता धर्ता वे ही थे । इसी के बाद संघ ने इन्हें विराट हिंदू सम्मेलनों का काम सौंपा । इन सम्मेलनों के अध्यक्ष कांग्रेस सांसद कर्ण सिंह होते थे । आगरा में जनमे सिंघल के पिता सरकारी कर्मचारी थे । सिंघल पढ़ाकू और प्रभावशाली वक्ता थे । वे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से 1950 में धातु इंजीनियरिंग में स्नातक हुए । सिंघल गुरु परंपरा से ख्याल गायक थे । उन्होंने पंडित ओंकार नाथ ठाकुर से गायन सीखा था । पहली धर्म संसद में उन्होंने गाया ' चंदन है इस देश की माटी, तपोभूमि हर ग्राम है, हर बाला देवी की प्रतिमा, बच्चा बच्चा राम है । ' सिंघल के गायन की सीडी भी बनीं । अयोध्या में ताला खुलने से लेकर ध्वंस तक उस आंदोलन के केंद्रीय पुरुष वही थे ।

(10)  के.के.के. नायर 

केरल के अलप्पी के रहने वाले के.के.के. नायर 1930 बैच के आई.ए.एस अफसर थे । फैजाबाद ( वर्तमान में अयोध्या ) के जिलाधिकारी रहे, इन्हीं के कार्यकाल में बाबरी ढाँचे में मूर्तियाँ रखी गईं या यों कहें , इन्होंने ही रखवाई थी ।बाबरी मामले से जुड़े आधुनिक भारत के वे ऐसे शख्स हैं, जिनके कार्यकाल में उस मामले में सबसे बड़ा 'टर्निंग पॉइंट' आया और देश के सामाजिक-राजनीतिक ताने-बाने पर इसका दूरगामी असर पड़ा । मद्रास विश्वविद्यालय से पढ़े - लिखे नायर तमिल, मलयाली, हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, समेत फ्रेंच, जर्मन, रसियन, स्पेनिस, आदि भाषाओं के जानकार थे । 1 जून, 1949 को, जब भगवान राम की मूर्तियाँ मस्जिद में स्थापित की गईं तो प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत से फौरन मुर्तियों को हटवाने के लिए कहा । उत्तरप्रदेश सरकार ने भी मूर्तियां हटाने का आदेश दिया, लेकिन जिला मैजिस्ट्रेट के.के.के. नायर ने दंगो और हिंदू भावनाओं के भड़कने के डर से इस आदेश को पालन करने में असमर्थता जताई । साथ ही परिसर में ताला बंद कर मुसलमानों को वहां जाने से रोक दिया । जब नेहरू ने दुबारा मूर्तियाँ हटाने को कहा, तो के.के.के. नायर ने सरकार को लिखा मूर्तियाँ  हटाने से पहले मुझे हटाया जाए । देश के सांप्रदायिक माहौल को देखते हुए सरकार पीछे हट गई । डीएम के.के.के. नायर ने 1952 में स्वैच्छिक सेवानिवृति ले ली ।
चौथी लोकसभा के लिए वे उत्तरप्रदेश की बहराइच सीट से जनसंघ के टिकट पर लोकसभा पहुँचे । इस इलाके में नायर हिंदुत्व के इतने बड़े प्रतीक बन गए थे कि उनकी पत्नी शकुंतला नायर भी कैसरगंज से तीन बार जनसंघ के टिकट पर लोकसभा पहुँचीं । उनका ड्राइवर भी उत्तरप्रदेश विधानसभा का सदस्य बना ।



Tuesday 21 July 2020

अयोध्या विवाद की महत्वपूर्ण तारीखें important dates of ayodhya disputes

1528
बाबर के एक सेनापति मीर बाकी ने अयोध्या में मस्जिद का निर्माण करवाया, जिसे हिंदू भगवान राम का जन्मस्थान मानते थे । 

1528-1731
इस दौरान इस इमारत पर कब्जे को लेकर दोनों समुदायों की तरफ से 64 बार संघर्ष हुए ।

1822

फैज़ाबाद अदालत के मुलाजिम हफिजुल्ला ने सरकार को भेजी रिपोर्ट में कहा की राम के जन्मस्थान पर बाबर ने एक मस्जिद बनवाई थी ।

1852

अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह के शासन में यहां पहली बार किसी मारपीट की घटना का लिखित जिक्र हुआ । निर्मोही पंथ के लोगों ने दावा किया कि बाबर ने एक मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाई थी ।

1855 

हनुमानगढ़ी पर बैरागियों और मुसलमानों के बीच युद्ध हुआ । वाजिद अली शाह ने ब्रिटिश रेजिडेंट मेजर आर्टम को अयोध्या के हालात पर एक पर्चा भेजा । इसमें पाँच दस्तावेज को लगाकर यह बताया कि इस विवादित इमारत को लेकर यहाँ अकसर हिंदू-मुसलमानों में तनाव रहता है ।

1859

ब्रिटिश हुकूमत में इस पवित्र स्थान की घेराबंदी कर दी । अंदर का हिस्सा मुस्लिमों की नमाज के लिए और बाहर का हिस्सा हिंदुओं की पूजा के लिए दिया गया।

1860

डिप्टी कमिश्नर फैजाबाद की कोर्ट में मस्जिद के खातिर रजन अली ने एक दरखास्त लगाई कि मस्जिद परिसर में एक निहंग सिख ने निशान साहिब गाड़ कर एक चबूतरा बना दिया है, जिसे हटाया जाए।

1877

 मस्जिद के मुअज्जिन मोहम्मद असगर ने डिप्टी कमिश्नर के दफ्तर में फिर से अर्जी देकर शिकायत की कि बैरागी महंत बलदेव दास ने परिसर में एक चरण पादुका रख दी है, जिसकी पूजा हो रही है। उन्होंने पूजा के लिए एक चूल्हा भी बनाया है। शायद यह हवन कुंड रहा होगा। अदालत ने कुछ हटवाया तो नहीं , पर महंत बलदेव को आगे कुछ और करने पर रोक लगा दी और मुसलमानों के लिए मस्जिद में जाने का एक दूसरा रास्ता बना दिया।

1885, 15 जनवरी

पहली बार यहां मंदिर बनाने की माँग अदालत में पहुँची। महंत रघुवर दास ने पहला केस फाइल किया। उन्होंने राम चबूतरा पर एक मंडप बनाने की इजाजत मांगी, जो उनके कब्जे में था। संयोग से इसी साल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना भी हुई।

1885, 24 फरवरी 

फैजाबाद की जिला अदालत ने महंत रघुबर दास की अर्जी को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि वह जगह मस्जिद के बेहद करीब है। इससे झगड़े होंगे। सब जज हरिकिशन ने अपने फैसले में माना कि यहां चबूतरे पर रघुवर दास का कब्जा है। उन्होंने एक दीवार उठाकर चबूतरे को अलग करने की हिदायत दी, पर कहा मंदिर नहीं बन सकता है।

1886, 17 मार्च

महंत रघुबर दास ने जिला जज फैजाबाद कर्नल एफ.ई.ए कैमियर की अदालत में अपील दायर की। के कैमियर साहब ने अपने फैसले में कहा कि मस्जिद हिंदुओं के पवित्र स्थान पर बनी है। पर अब देरी हो चुकी है। 356 साल पुरानी गलती को सुधारना इतने दिनों बाद उचित नहीं है। सभी पक्ष यथास्थिति बनाए रखें।

1912, 20-21 नवंबर 

बकरीद के मौके पर अयोध्या में गौ हत्या के खिलाफ पहला दंगा हुआ। यहां 1906 से ही म्युनिसिपल कानून के तहत गौ हत्या पर पाबंदी थी। 

1934, मार्च

फैजाबाद के शाहजहाँपुर में हुई गौ हत्या के विरोध में दंगे हुए। नाराज हिंदुओं ने बाबरी मस्जिद की दीवार और गुंबद को नुकसान पहुंचाया। सरकार ने बाद में इसकी मरम्मत कराई।

1936

इस बात की कमिश्नरी जाँच की गयी की क्या बाबरी मस्जिद बाबर ने बनवाई थी ।

1944, 20 फरवरी

आधिकारिक गजट में एक जाँच रिपोर्ट प्रकाशित हुई । जो 1945 में शिया और सुन्नी वक्फ बोर्ड के फैजाबाद की रेवेन्यु कोर्ट में मुकदमे के दौरान सामने आई ।

1949, 22-23 दिसंबर

भगवान राम की मूर्ति मस्जिद के अंदर प्रगट हुई । आरोप था कि कुछ हिंदू समूहों ने यह काम किया है । दोनों पक्षों ने केस दायर किए । सरकार ने उस इलाके को विवादित घोषित कर इमारत की कुर्की के आदेश दिए, पर पूजा अर्चना जारी रही ।

1949, 29 दिसंबर
फैजाबाद के म्युनिसिपल बोर्ड के चेयरमैन प्रिया दत्त राम को विवादित परिसर का रिसीवर नियुक्त किया गया ।

1950
हिंदू महासभा के गोपाल सिंह विशारद और दिगंबर अखाड़े के महंत परमहंस रामचन्द्र दास ने फैजाबाद अदालत में याचिका दायर कर जन्मस्थान पर स्वामित्व का मुकदमा ठोंका । दोनों ने वहाँ पूजा पाठ की इजाजत माँगी । सिविल जज ने भीतरी हिस्से को बंद रखकर पूजा-पाठ की इजाजत देते हुए मूर्तियों को न हटाने के अंतरिम आदेश दिए ।

1955, 26 अप्रैल
हाइकोर्ट ने 3 मार्च,1955 को सिविल जज के इस अंतरिम आदेश पर मोहर लगाई ।

1959
निर्मोही अखाड़े ने एक दूसरी याचिका दायर कर विवादित स्थान पर अपना दावा ठोंका और स्वयं को राम जन्मभूमि संरक्षक बताया ।

1961
सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने मस्जिद में मूर्तियों के रखे जाने के विरोध में याचिका दायर की और दावा किया कि मस्जिद और उसके आसपास की जमीन एक कब्रगाह है, जिस पर उसका दावा है ।

1964, 29 अगस्त
जन्माष्टमी के मौके पर मुंबई में विश्व हिंदू परिषद की स्थापना हुई । स्थापना सम्मेलन मे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख माधव सदाशिव गोलवलकर, गुजराती साहित्यकार कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, संत तुको जी महाराज और अकाली दल के मास्टर तारा सिंह मौजूद थे ।

1984, 7-8 अप्रैल
नई दिल्ली में जन्मभूमि स्थल पर मंदिर निर्माण के लिए हिंदू समूहों ने राम जन्म भूमि मुक्ति यज्ञ समिति बनाई इसके अध्यक्ष महंत अवैधनाथ बने । देशभर में रामजन्म भूमि मुक्ति के लिए रख यात्रा निकाली गईं । राम मंदिर आंदोलन ने तेजी पकड़ी ।

1986, 1 फरवरी
फैजाबाद के वकील उमेश चंद्र पांडे की याचिका पर जिला जज फैज़ाबाद के.एम पांडेय ने आदेश दिया कि मस्जिद के ताले खोल दिए जाएँ और हिंदुओं को वहां-पूजा पाठ की इजाजत मिले इस फैसले के 40 मिनट के भीतर ही सिटी मजिस्ट्रेट ने राम जन्म भूमि के ताले खुलवा दिए मुस्लिमों ने हिंदुओं को पूजा-पाठ की इजाजत मिलने पर विरोध किया ।

1986, 3 फरवरी
मोहम्मद हाशिम अंसारी में हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में ताला खोले जाने के जिला जज के फैसले को रोकने की अपील की । हाशिम ने अपनी याचिका में कहा कि इस मामले में जिला जज ने बिना दूसरे पक्ष को सुने इकतरफा फैसला दिया है ।

1986, 5-6 फरवरी 
मुस्लिम नेता सैयद शहाबुद्दीन ने ताला खोले जाने के खिलाफ 14 फरवरी को देश भर में शोक दिवस मनाने की अपील की । ऑल इंडिया मजलिसे मुसवरात ने इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री से हस्तक्षेप की मांग की ।

1986, 5-6 फरवरी
ताला खोले जाने के खिलाफ लखनऊ में मुसलमानों की एक सभा हुई । जिसमें बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के गठन का ऐलान हुआ । मौलाना मुजफ्फर हुसैन किछौछवी को कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया तथा मोहम्मद आज़म खान और जफरयाब जिलानी संयोजक बने ।

1986, 23-24 सितंबर 
दिल्ली में सैयद शहाबुद्दीन की अध्यक्षता में बाबरी मस्जिद कोआर्डिनेशन कमेटी का गठन हुआ । कमेटी ने 26 जनवरी 1987 के गणतंत्र दिवस समारोह के बहिष्कार का आह्वान किया ।

1989, जून 
मंदिर आंदोलन को पहली बार बीजेपी ने अपने एजेंडे में लिया । हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने प्रस्ताव पारित कर अयोध्या में राममंदिर बनाने का संकल्प लिया । इस प्रस्ताव में यह भी कहा गया कि यह आस्था का सवाल है । अदालत फैसला नहीं  कर सकती ।

1989, 1 अप्रैल
विश्व हिंदू परिषद द्वारा बुलाई गई धर्मसंसद ने 30 सितम्बर को प्रस्तावित मन्दिर के शिलान्यास का ऐलान किया ।

1989, मई
विश्व हिंदू परिषद ने राममंदिर निर्माण के लिए 25 करोड़ रुपये इकट्ठा करने की योजना बनाई ।

1988, जुलाई से 1989 नवंबर
गृहमंत्री बूटा सिंह ने राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद को लेकर अलग अलग पार्टियों के साथ सलाह-मशविरा किया ।

1989
विश्व हिंदू परिषद के पूर्व उपाध्यक्ष जस्टिस देवी नंदन अग्रवाल ने रामलला विराजमान के दोस्त की हैसियत से हाइकोर्ट में एक याचिका दायर कर कहा कि मस्जिद को वहाँ से हटाकर कहीं और ले जाया जाए । सरकार ने फैजाबाद जिला अदालत में लंबित चार मुकदमों के साथ मूल मुकदमे को हाइकोर्ट की विशेष बेंच को स्थांतरित कर दिया । सबकी एक साथ हाईकोर्ट में सुनवाई शुरू ।

1989, 14 अगस्त
हाइकोर्ट ने आदेश दिया की विवादित परिसर में यथास्थिति बनाए रखी जाए ।

1989, अक्टूबर-नवंबर
राम मंदिर निर्माण के लिए अयोध्या में पूरे देश से साढ़े तीन लाख रामशीलाएँ पहुँचाई गईं । इन रामशिलाओं का पूजन देश के हर गाँव में हुआ था ।

1989, 9 नवंबर
राजीव गांधी की केंद्र और नारायण दत्त तिवारी की राज्य सरकार की सहमति से अयोध्या में राममंदिर का शिलान्यास किया गया । शिलान्यास पर बिना किसी विवाद के सभी पक्षों में सहमति बनी थी। शिलान्यास प्रस्तावित मंदिर के सिंहद्वार पर हुआ ।
बाद में पता चला की शिलान्यास विवादित स्थल पर हुआ है ।

1990, 1 जनवरी
अदालत ने आदेश दिया की सर्वे कमिशन का गठन किया जाए, उसने उत्तर प्रदेश पुरातत्त्व विभाग को विवादित परिसर की तस्वीरें लेने को कहा ।

1990, फरवरी 
राम जन्मभूमि स्थल पर फिर से कारसेवा का ऐलान ।

1990, जून
हरिद्वार में विश्व हिन्दू परिषद की बैठक में फैसला हुआ कि 30 अक्टूबर से अयोध्या में मंदिर का निर्माण-कार्य फिर से शुरू किया जाएगा । माहौल बनाने के लिए भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक रथयात्रा का ऐलान किया । 25 सितम्बर को सोमनाथ से चली यह रथयात्रा 30 अक्टूबर को फैजाबाद पहुँचनी थी ।

1990, जुलाई-अक्टूबर
विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के दौरान इस विवाद पर सुलह--सफाई के लिए बातचीत का दौर चला ।

1990, 25 सितम्बर
सोमनाथ से अयोध्या के लिए भारतीय जनता पार्टी नेता लाल कृष्ण आडवाणी की रथयात्रा शुरू हुई ।

1990, 17 अक्टूबर
भारतीय जनता पार्टी ने केंद्र सरकार को चेतावनी दी कि अगर आडवाणी की रथयात्रा रोकी गयी तो केंद्र सरकार ने समर्थन वापस ले लेगी ।

1990, 19 अक्टूबर
विवादित जमीन पर कब्जे के लिए केंद्र सरकार ने तीन सूत्रीय अध्यादेश जारी किया, ताकि उसे राम जन्मभूमि न्यास को मन्दिर निर्माण के लिए सौंपा जाए ।

1990, 23 अक्टूबर
भारी विरोध को देखते हुए सरकार ने उक्त अध्यादेश को वापस ले लिया । बीजेपी को भरोसे में लिए बिना ।

1990, 23 अक्टूबर
केंद्र सरकार के कहने पर बिहार की लालू सरकार ने रथयात्रा रोकी । आडवाणी को समस्तीपुर में गिरफ्तार कर लिया गया । भारतीय जनता पार्टी ने केंद्र सरकार से समर्थन वापस ले लिया । विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार अल्पमत में आ गयी ।

1990, 30 अक्टूबर-2 नवंबर
विश्व हिन्दू परिषद के कारसेवक लाखों की संख्या में अयोध्या पहुँचे । कुछ कारसेवकों ने विवादित इमारत में तोड़फोड़ की । इमारत के ऊपर भगवा झंडा फहराया । मुलायम सिंह यादव की सरकार ने स्थिति को काबू में करने के लिए गोलियाँ चलवाईं । 40 से ज्यादा कारसेवक मारे गए । प्रतिक्रिया में देश के अनेक हिस्सों में दंगे भड़के । उत्तरप्रदेश के 42 से ज्यादा जिलों में कर्फ्यू लगाया गया ।

1990, 7 नवंबर
बीजेपी के समर्थन वापस लेने से विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार संसद में पराजित । चंद्रशेखर कांग्रेस के सहयोग से देश के नए प्रधानमंत्री बने ।

1990, 1 दिसंबर
ऑल इंडिया बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी ने 22 दिसंबर को पूरे देश में अयोध्या को लेकर एक कॉन्फ्रेंस की बात कही । विश्व हिंदू परिषद और बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी में सुलह के लिए बैठक भी हुई, लेकिन विश्व हिन्दू परिषद ने करसेवा जारी रखने की बात कही । 1 और 4 दिसंबर को प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर ने दोनों पक्षों को बातचीत करने के लिए आमने सामने बिठाया । बैठक में राजस्थान के मुख्यमंत्री भैरोंसिंह शेखावत और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री शरद पवार भी शामिल थे। इसी बैठक में यह तय हुआ कि दोनों पक्ष अपने- अपने दावों के समर्थन में सबूत पेश करें ।

1990, 9 दिसंबर
कथित तौर पर शिवसेना के सुरेशचन्द्र नाम के एक युवक की मस्जिद को उड़ा देने की कोशिश को सुरक्षाबलों ने नाकाम किया । इस युवक को परिसर में ही गिरफ्तार कर लिया गया । इसने डायनामाइट की छड़ अपने शरीर में बाँध रखी थी ।

1990, 23 दिसंबर 
विश्व हिन्दू परिषद और बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी ने अपने अपने दावों को लेकर दस्तावेज सरकार को सौंपे ।

1991, 18 जनवरी 
उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने अयोध्या में मारे गए लोगों और उसके बाद हुए दंगों की जाँच के लिए एक कमेटी बनाई ।

1991 
देश में आमसभा चुनाव हुए । उत्तरप्रदेश में बीजेपी की सरकार बनी । केंद्र में पी.वी. नरसिंह राव के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार ने कार्यभार सँभाला । लोकसभा में भारतीय जनता पार्टी प्रमुख विपक्षी दल बनी । मंदिर आंदोलन की बदौलत उसे उत्तर प्रदेश की सत्ता मिली । इससे अयोध्या आंदोलन में और तेजी आई ।

1991, 7-10 अक्टूबर
उत्तर प्रदेश की कल्याण सिंह सरकार ने 2.77 एकड़ विवादित जमीन का अधिग्रहण किया । अधिग्रहित जमीन पर कुछ घरों और मंदिरों को तोड़ा गया ।

1991, 25 अक्टूबर 
हाईकोर्ट ने एक आदेश में उत्तरप्रदेश सरकार को अधिग्रहित जमीन का कब्जा लेने को तो कहा , लेकिन अधिग्रहित जमीन पर किसी तरह के स्थाई निर्माण पर रोक लगा दी ।

1991, 2 नवंबर 
राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक को कल्याण सिंह ने भरोसा दिया कि उनकी सरकार विवादित ढाँचे की पूरी तरह हिफाजत करेगी । परिषद ने एक मत से ढाँचे की सुरक्षा के लिए प्रस्ताव पारित किया ।

1991, 15 नवंबर 
सुप्रीम कोर्ट ने मुख्यमंत्री कल्याण सिंह से राष्ट्रीय एकता परिषद और हाईकोर्ट को दिए गए भरोसे के आधार पर कहा कि वह 25 अक्टूबर , 1991 के हाईकोर्ट के आदेश को कढ़ाई से लागू करे । जिसमें विवादित स्थल पर किसी भी निर्माण की मनाही थी ।

1992, फरवरी 
उत्तर प्रदेश सरकार ने अयोध्या में विवादित परिसर के चारों ओर रामदीवार का निर्माण शुरू किया ।

1992, मार्च
1988-89 में राज्य सरकार द्वारा अधिग्रहण की गई 42.09 एकड़ जमीन राम जन्मभूमि न्यास को रामकथा पार्क के लिए सौंप दी गई ।

1992, मार्च-मई
अधिग्रहण की गई उस जमीन पर बने सभी मंदिर, आश्रम और भवनों को तोड़ दिया गया । वहाँ जमीनों के समतलीकरण का काम शुरू हुआ ।

1992, मई
विवादित परिसर में खुदाई और समतलीकरण के काम पर हाईकोर्ट ने रोक लगाने से मना कर दिया ।

1992, 9 जुलाई 
विश्व हिंदू परिषद ने कारसेवा फिर शुरू की , विवादित स्थल पर कंक्रीट का चबूतरा बनाना शुरू ।

1992, 15 जुलाई
हाईकोर्ट ने कारसेवा रोकने और वहाँ चल रहे इस स्थाई निर्माण पर रोक लगाने का आदेश किया ।

1992, जुलाई 
सुप्रीम कोर्ट में कल्याण सिंह के खिलाफ अवमानना का मुकदमा दायर पर कारसेवा जारी रही ।

1992, 18 जुलाई
राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक हुई, जिसमें कोई नतीजा नहीं निकला । राष्ट्रीय एकता परिषद ने उत्तर प्रदेश सरकार से कहा कि हाईकोर्ट के आदेश का पालन करे और निर्माण रोके ।

1992, 23 जुलाई
सुप्रीमकोर्ट ने विवादित स्थल पर किसी भी तरह के निर्माण पर रोक लगा दी । प्रधानमंत्री ने धार्मिक गुरूओं से बात कर कारसेवा रूकवाने को कहा ।

1992, 26 जुलाई 
विश्व हिंदू परिषद ने 9 जुलाई को शुरू हुई कारसेवा रोकी ।

1992, 27 जुलाई 
प्रधानमंत्री ने अयोध्या की स्थिति पर संसद में बयान दिया ।

1992, अगस्त-सितंबर 
प्रधानमंत्री कार्यलय में अयोध्या सेल का गठन हुआ । पूर्व कैबिनेट सचिव नरेश चंद्रा इसके अध्यक्ष बने ।

1992, अक्टूबर
प्रधानमंत्री की पहल पर विश्व हिंदू परिषद और बाबरी एक्शन कमेटी में फिर से बातचीत शुरू । दो बैठकें हुईं ।

1992, 23 अक्टूबर 
विवादित परिसर में मिले पुरात्तव-अवशेषों के अध्ययन के लिए विश्व हिंदू परिषद और बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के नेताओं की बैठक ।

1992, 30-31 अक्टूबर 
धर्मसंसद और केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल की बैठक में 6 दिसंबर, 1992 को दोबारा कारसेवा शुरू करने का एलान हुआ ।

1992, 23 नवंबर
भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक का बहिष्कार किया । वहाँ आम सहमती से प्रस्ताव पारित हुआ , जिसमें कहा गया कि सरकार सुप्रीम कोर्ट के 20 नवंबर , 1992 के आदेश के तहत काम करे, यानि कोई निर्माण कार्य न हो ।

1992, 24 नवंबर
राज्य सरकार को बताए बिना केंद्र सरकार ने केंद्रीय बलों की एक कंपनी को अयोध्या भेजा ।

1992, 27-28 नवंबर
उत्तर प्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में ढाँचे की सुरक्षा के लिए एफिडेविट दिया  । सुप्रीमकोर्ट ने अपना एक पर्यवेक्षक नियुक्त किया , जिसका काम यह देखना था कि कारसेवा के नाम पर वहाँ कोई स्थाई निर्माण न हो । मुरादाबाद के जिला जज तेजशंकर अयोध्या में पर्यवेक्षक बने ।

1992, 6 दिसंबर
विश्व हिंदू परिषद , भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना के समर्थन से कारसेवकों द्वारा विवादित बाबरी मस्जिद गिरा दी गई । देश भर में दंगे फैलें, जिसमें 2000 से ज्यादा लोगों की जान गई । केंद्र सरकार ने उत्तर प्रदेश की कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त किया । मुख्यमंत्री कल्याण सिंह बर्खास्तगी से पहले ही अपना इस्तीफा सौंप चुके थे । शाम तक विवादित स्थल पर अस्थाई मंदिर का निर्माण हुआ मूर्तियां फिर से स्थापित की गईं । वहाँ 6 और 7 दिसंबर को राष्ट्रपति शासन के दौरान दीवार औऱ शेड का निर्माण हुआ ।

1992, 6 दिसंबर 
दो  एफ.आई.आर बाबरी मस्जिद विध्वंस के खिलाफ राम जन्मभूमि थाने में दर्ज की गईं । एफ.आई.आर संख्या 197 कारसेवकों और एफ.आई.आर संख्या 198 लालकृष्ण आडवाणी , मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, अशोक सिंघल सहित बीजेपी के दूसरे नेताओं के खिलाफ थी ।

1992, 7-8 दिसंबर
राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद परिसर को केंद्रीय सुरक्षा बलों ने अपने कब्जे में लिया ।

1992, 10 दिसंबर 
केंद्र सरकार ने आरएसएस, बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद और जमाते इस्लामी पर पाबंदी लगा दी ।

1992, 15 दिसंबर
प्रतिबंधित संगठनों के साथ संबंध रखने के आरोप में केंद्र सरकार ने राजस्थान, मध्यप्रदेश और हिमाचल प्रदेश की बीजेपी सरकारों को बर्खास्त किया ।

1992, 16 दिसंबर
बाबरी ध्वंस के लिए आडवाणी समेत 6 अभियुक्तों को गिरफ्तार करके ललितपुर जेल भेज दिया गया । उत्तर प्रदेश सरकार ने एफ.आई.आर. 198, जिसमें आडवाणी और सात अन्य लोग आरोपित थे, उसे ललितपुर की विशेष अदालत को सौंप दिया ।

1992, 27 दिसंबर 
केंद्र सरकार ने अयोध्या के विवादित स्थल और उसके आसपास का इलाका अपने अधिकार में लेने का फैसला किया ।

1993, 7 जनवरी 
अयोध्या के राम जन्मभूमि बाबरी परिसर की 67.7 एकड़ जमीन का केंद्र सरकार ने अधिग्रहण किया । इसमें अस्थाई मंदिर भी था । इसी रोज राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 143(ए) के तहत सुप्रीम कोर्ट को प्रेसीडेंसियल रिफरेंस भी किया कि वे बताएँ कि क्या विवादित ढाँचे के नीचे कभी कोई मंदिर था और वहाँ मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई थी ? सुप्रीम कोर्ट ने लंबी सुनवाई के बाद इस रिफरेंस को यह कहते हुए लौटा दिया कि वह इस पर राय नहीं दे सकता ।

1993, 27 फरवरी 
सी.बी.सी,आ.ई,डी ने ललितपुर की विशेष अदालत में एफ.आई.आर. 198 में एक आरोप-पत्र दाखिल किया । इसमें आडवाणी और बाकी लोगों पर धारा 147,149 (153ए, 153बी और 505 के अलावा ) के तहत आरोप लगाए गए ।

1993, 11 मार्च 
बाबरी ढाँचे को गिराने की कथित प्रतिक्रिया में मुंबई में बम धमाके हुए । इस विस्फोट और उसके बाद हुए सांप्रदायिक दंगों में हजारों लोग मारे गए ।

1993, 6 जून
उत्तर प्रदेश सरकार ने एफ.आई,आर संख्या 198 को ललितपुर से रायबरेली की विशेष अदालत में स्थानांतरित कर दिया ।

1993, 25 अगस्त
आडवाडी के मामले में सी.बी.आई ने सी.बी.सी.आ.ई.डी की जगह ली । उत्तर प्रदेश सरकार ने दो अधिसूचनाएँ जारी कर मामले को सी.बी.आई  को सौंपा । पहले में सी.बी.आई को एफ.आई.आर. संख्या 198 की जाँच की मंजूरी दी गई, जबकि दूसरे में सी.बी.आई को मीडिया पर हुए हमले की जाँच करने के लिए कहा गया ।

1993, 8 सितंबर 
उत्तर प्रदेश सरकार की इलाहाबाद हाईकोर्ट से सलाह के बाद अयोध्या ध्वंस के मामलों की सुनवाई के लिए लखनऊ में विशेष अदालत का गठन हुआ ।

1993, 5 अक्टूबर 
सी.बी.आई. ने पहली बार सभी अभियुक्तों के खिलाफ साजिश का मामला 120बी भी लगाया । उसने सभी 49 मामलों में एक संयुक्त पूरक आरोप-पत्र दाखिल किया ।

1997, 9 सितंबर 
विशेष न्यायाधीश ने सी.बी.आई. से आरोपित 49 लोगों के खिलाफ आरोप लगाने को कहा । इनमें से 33 लोगों ने हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ में पुर्नविचार  की याचिका दाखिल की । आडवाणी ने कोई पुर्नविचार याचिका दाखिल नहीं की ।

1998 
भारतीय जनता पार्टी को केंद्र में सत्ता मिली ।

2001 , 12 फरवरी
हाईकोर्ट ने 33 आरोपियों की पुर्नविचार याचिकाएँ स्वीकार कर लीं ।
 
2001, 24 जुलाई
मोहम्मद असलम उर्फ भूरे ने 12 फरवरी  को हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में  एक याचिका दायर की ।

2001, 20 अगस्त
सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार और सी.बी.आई. को भूरे की अपील के विरूद्ध जवाबी हलफनामा दायर करने को कहा ।

2002
फरवरी में विश्व हिंदू परिषद ने मंदिर निर्माण फिर से शुरू करने को लिए 15 मार्च की अंतिम तारीख तय की । देश भर से कारसेवक अयोध्या में इकट्ठा होने लगे । 
कारेसेवकों को वापस ले जा रही साबरमती एक्सप्रेस के डिब्बे एस-6 पर गुजरात के गोधरा में हमला किया गया । उस हमले में 58 कारसेवक जिंदा जला दिए गए । इस हमले के बाद पूरे गुजरात में दंगे फैल गए , जिसमें 1000 से ज्यादा लोगों की मौत हुई ।

2002, अप्रैल 
इलाहाबाद हाईकोर्ट में इस बात की सुनवाई शुरू हुई कि विवादित स्थल पर किसका अधिकार है ।

2003
इलाहाबाद हाईकोर्ट की विशेष अदालत ने ए.एस.आई. को इस बात की जाँच करने को कहा कि क्या वहाँ पहले कोई मंदिर था । हाईकोर्ट ने ए.एस.आई से कहा कि वह खुदाई कर इस बात का पता लगाए । ए.एस.आई को मस्जिद के नीचे ग्यारवहीं सदी के एक मंदिर के होने के साक्ष्य मिले ।

2004
6 साल के बीजेपी को शासन के बाद केंद्र में कांग्रेस की वापसी हुई । उत्तर प्रदेश की अदालत ने कहा कि आडवाणी को निर्दोश ठहराए जाने की विवेचना होनी चाहिए ।

2005, जुलाई
कुछ संदिग्ध इस्लामी आतंकवादियों ने विवादित स्थल पर आक्रमण किया । विवादित परिसर में घुसने का प्रयास कर रहे इन पाँचों आतंकवादियों को सुरक्षा बलों ने मार गिराया ।

2009, जून
लिब्राहन कमीशन , जिसे बाबरी विध्वंस की जाँच के लिए गठित किया गया था , ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। संसद में हंगामा हुआ, क्यों कि उसमें भारतीय जनता पार्टी के विध्वंस में शामिल होने की बात कहीं गई थी ।

2010
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अयोध्या विवाद को लेकर दायर की गई चार याचिकाओं पर फैसला सुनाया । इस फैसले में हाईकोर्ट ने कहा कि विवादित स्थल को तीन हिस्सों में बांट दिया जाए । एक तिहाई हिस्सा रामलला को दिया जाए, जिसका प्रतिनिधित्व हिंदू महासभा के पास है ; एक तिहाई हिस्सा सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड को दिया जाए और तीसरा हिस्सो निर्मोही अखाड़े को दिया जाए । दिसंबर में अखिल भारतीय हिंदू महासभा और सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गए ।

2011, मई
सुप्रीम कोर्ट ने जमीन के बँटवारे पर रोक लगा दी और कहा कि स्थिति को पहले की तरह बरकरार रखा जाए ।

2014
लोकसभा के आम चुनावों में नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भारतीय जनता पार्टी ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की और केंद्र की सत्ता में आई ।

2015
विश्व हिंदू परिषद ने फिर राजस्थान से राममंदिर के निर्माण के लिए शिलाएं इकट्ठा करने का आह्वान किया । 6 महीने बाद विवादित स्थल पर 2 ट्रक शिलाएं पहुँच गईं । महंत नृत्यगोपाल दास ने दावा किया कि मोदी सरकार की ओर से मंदिर निर्माण के लिए हरी झंडी मिल गईं है ।
उत्तर प्रदेश की अखिलेश यादव सरकार ने कहा की  अयोध्या में शिलाओं को लाने की इजाजत नहीं दी जाएगी ।

2017, मार्च
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 1992 के ध्वंस को लेकर आडवाणी और अन्य नेताओं पर लगे आरोप वापस नहीं लिये जा सकते और केस की जाँच फिर से की जाए ।

2017, 12 मार्च
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह मामला संवेदनशील है और उसका समाधान कोर्ट से बाहर होना चाहिए । सुप्रीम कोर्ट ने सभी पक्षों से एक राय बनाकर समाधान ढूँढ़ने को कहा ।

2017, 5 दिसंबर
सुप्रीम कोर्ट ने 8 फरवरी , 2017 को राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर तमाम याचिकाओं पर तेजी से सुनवाई को फैसला किया ।

2018, 8 फरवरी 
सुप्रीम कोर्ट ने सभी पक्षों को दो हफ्ते में अपने-अपने दस्तावेज तैयार करने का दिया । साथ ही यह भी कहा कि इस मामले में अब कोई नया पक्षकार नहीं जुड़ेगा । मुख्य न्यायाधीश ने कहा हम इस मामले को जमीन के विवाद की तरह ही देखेंगे ।

2018, 14 मार्च
सुप्रीमकोर्ट ने इस मामले को अनावश्यक दखल से बचाने के लिए मुख्य पक्षकारों के अलावा बाकी तीसरे पक्षों की ओर से दायर सभी 32 हस्तक्षेप अर्जियों को खारिज कर दिया । अब वही पक्षकार बचे जो इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले में शामिल थे । सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर दोनों पक्ष समझौते के लिए राजी हैं तो कोर्ट इसकी इजाजत दे सकता है, लेकिन वह किसी पक्ष को मजबूर नहीं कर सकता ।

2018, 27 सितंबर 
अयोध्या मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की पीठ ने एक महत्वपूर्ण फैसला दिया । फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने मुस्लिम पक्ष की माँग खारिज करते हुए  'इस्माइल फारूकी'  मामले को पुर्नविचार के लिए बड़ी पीठ को भेजने से मना कर दिया । साल 1994 के इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने नमाज की खातिर मस्जिद को इस्लाम को अभिन्न अंग मानने से इनकार कर दिया था । मुस्लिम पक्ष का दावा था कि अयोध्या मामले पर इलाहाबाद हाईकोर्ट का साल 2010 का फैसला इस्माइल फारूकी जजमेंट से प्रभावित था , इसलिए इस पर पुर्नविचार किए बगैर अयोध्या के टाइटल सूट पर सुनवाई नहीं होनी चाहिए ।
मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने 2-1 के बहुमत से यह आदेश दिया कि "अयोध्या मामले पर इस्माइल फारूकी केस का कोई असर नहीं है और जमीन के विवाद पर निर्णय सबूतों के आधार पर किया जाएगा । " यह मत पीठ के जस्टिस दीपक मिश्र व जस्टिस अशोक भूषण का रहा । जबकि पीठ के तीसरे जस्टिस एस. अब्दुल नजीर ने इससे असहमति वयक्त की । उनके मुताबिक " मस्जिद इस्लाम का अभिन्न हिस्सा है या नहीं इसका फैसला धार्मिक आस्था के आधार पर होना चाहिए । इसके लिए विस्तृत विमर्श की जरूरत है ।" इस फैसले के बाद अयोध्या मामले की सुनवाई अब तीन जजों की पीठ ही करेगी ।

9 नवंबर 2019 
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय विशेष बेंच ने फैसले में ASI का हवाला देते हुए कहा की बाबरी मस्जिद का निर्माण किसी खाली जगह पर नही किया गया था, विवादित जमीन के नीचे एक ढांचा था और यह इस्लामिक ढांचा नही था । सुप्रीम कोर्ट के कहा की पुरातत्व विभाग की खोज को नजरअंदाज नही किया जा सकता है । सुप्रीम कोर्ट ने सम्पूर्ण 67.7 एकड़ जमीन रामलला विराजमान को देने का फैसला सुनाया साथ ही रामजन्मभूमि पर राममंदिर निर्माण के लिए एक ट्रस्ट का गठन करने का आदेश केंद्र सरकार को दिया और सुप्रीम कोर्ट ने यह भी फैसला दिया कि मुस्लिम पक्ष को मस्जिद निर्माण के लिए 5 एकड़ जमीन भी दी जाए ।









Sunday 19 July 2020

सनातन में स्त्री विमर्श ( यत्र नार्यस्तु पूजययन्ते, रमन्ते तत्र देवता )

सनातन हिन्दू संस्कृति से बहुत छोटा सा उदाहरण देकर आपको सनातन का स्त्री विमर्श समझाना चाहता हूं। 
अगर हम हिन्दू धर्म शास्त्रों की बात करे तो वो अनगिनत है लेकिन उनमें से कुछ कहानियां बहुत ज्यादा प्रचलित है , उन कहानियों को हर वो हिन्दू जानता होगा जो कि थोड़ा बहुत भी धार्मिक होगा ।
सनातन हिन्दू धर्म शास्त्रों में बहुत सी स्त्रियों को सती की संज्ञा दी गयी है लेकिन ये पांच नाम हर सनातनी हिन्दू की स्मृति में रहते है ।
सती का अर्थ होता है पतिव्रता ,कर्तव्यनिष्ठ, सत्यवादी, धार्मिक, निष्ठावान, कितना भी कहु तो शब्द कम पड़ जाएंगे ।

1- तारा तारा सुग्रीव की पत्नी थी लेकिन बाली ने सुग्रीव को पराजित कर तारा का हरण किया और बाली के साथ में रहकर उन्होंने अंगद को जन्म दिया जो राम रावण युद्ध में भगवान श्री राम के विजिटिंग कार्ड बनकर गए थे रावण के दरबार में ।

2- कुंती- विवाह से पहले ही भगवान सूर्य के दिये वरदान के असमय परीक्षण के कारण कर्ण  को जन्म दे चुकी थी लेकिन सनातन ने माता कुंती पर लांछन नही लगाया बल्कि उन्हें सती की संज्ञा दी ।

3- द्रौपदी - पांच पतियों की पत्नी लेकिन सनातन के लोगों ने इनके लिए किसी भी अनर्गल शब्द का प्रयोग करके इनके चरित्रहरण का प्रयास नही किया, बल्कि जिन्होंने इनके चीर हरण की कोशिश की उनको उनके अंजाम तक पहुँचाने में भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं मार्गदर्शन किया पांडवों का ।

4- अहिल्या- इंद्र ने जो भी गलत किया माँ अहिल्या के साथ उसका अंजाम इंद्र ने भुगता, लेकिन इस कुकृत्य, जो कि माँ अहिल्या के साथ हुआ उसकी वजह से सनातन ने उनको ठुकराया नही बल्कि स्वयं भगवान श्री राम को माँ को सद्गति प्रदान करने के लिए धरती पर आना पड़ा ।

5- मंदोदरी- रावण की पत्नी थी लेकिन रावण की मृत्यु के बाद इनका विवाह रावण के छोटे भाई विभीषण के साथ हुआ, लेकिन सनातन ने इनकी पतिव्रता धर्म के प्रति निष्ठा को देखकर इनको सती की संज्ञा दी ।

माँ कुंती को छोड़कर उपरोक्त हर स्त्री के जीवन में दुर्भाग्य या सौभाग्य से एक से अधिक पुरुष आये लेकिन उस वजह से उपरोक्त किसी के भी मान में सनातनी इतिहास ने कोई कमी नही की है , कहने का मतलब यही था की किसी भी ऐसी स्त्री के प्रति घृणा का भाव मत लाइये जिनके जीवन में कुछ भी दुर्भाग्यपूर्ण घटा है जो नही घटना चाहिए था ।


Monday 6 April 2020

कुछ सवाल जिनके जवाब सेक्युलर लोगों को देने चाहिए ।

आज देश में एक नए तरीके की असहिष्णुता पनप रही है, जिनकी बातों को देश बिना किसी प्रश्न के 70 सालों से सुन रहा था, आज वही समाज कुछ सवाल उठाने लगा तो बुरा लग रहा है कुछ लोगों को ??
कुछ सवाल आपके सामने रख रहा हु उनसे जुड़े फैक्ट्स आपको किताबों और गूगल पर मिल जाएंगे।
1- जब 1946 के चुनाव में जिन्नाह की पार्टी के 90% प्रतिशत उम्मीदवार जीत गए मुस्लिम बहुल सीटों से, क्योंकि उस समय पृथक निर्वाचन प्रणाली थी, तो आज लोग ये क्यों कहते है की जिनको पाकिस्तान प्यारा था वो पाकिस्तान चले गए,
अरे 1946 में तो भारत के 90% मुसलमानों ने पाकिस्तान के पक्ष में मतदान किया था और गए 2% भी नही क्यों ??
2- जिस इलाके में पाकिस्तान बना वहां के लोगों ने मांग की थी पाकिस्तान की ?? क्या वहां से जिन्नाह की पार्टी के उम्मीदवार जीते थे??
3- जब तथाकथित रूप से देश आज़ाद हुआ 1947 में जबकि वो transfer of power थी, तो पहला गवर्नर जनरल माउंटबेटन को क्यों बनाया??
4- धारा 314 संविधान में क्यों डाली गयी अंग्रेज अफसरों की रक्षा के लिए??
5- नेता जी सुभाष चंद्र बोस जी की तस्वीर संसद में तब ही क्यों लग पाई जब गैर कांग्रसी सरकार सत्ता में आयी ? 23 जनवरी 1978 को अटल जी की पहल पर संसद में नेता जी सुभाष चंद्र बोस की तस्वीर संसद में लगी ।
6-माउंट बेटन की बीवी को संसद में श्रद्धांजलि दी गयी, लोकनायक जय प्रकाश नारायण को क्यों नही ??
7- नेता की सुभाष चन्द्र बोस जी की मृत्यु की जांच को लेकर 3 आयोग बने तीसरे आयोग ने जब ये सिद्ध कर दिया की नेता जी की मौत तथाकथित विमान दुर्घटना में नही हुई तो बिना कोई वजह बताए सरकार ने उस आयोग की रिपोर्ट को मानने से इंकार क्यों कर दिया गया??
8- शास्त्री जी की मौत को लेकर खुलासा आजतक क्यों नही हुआ? क्यों कांग्रेस की सरकार ने शास्त्री जी का पोस्टमार्टम नही करवाया??
9- mitrokhin archive 2 (जो की सोवियत रूस की intelligence एजेंसी के दस्तावेज है) में की इंदिरा कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी पर लगे आरोपों की जांच क्यों नही हुई जिसमें ये स्पष्ट लिखा है की शास्त्री जी की मौत का जिम्मेदार कौन है??
10- आज़ाद हिन्द फौज का पूरी तरह से जिक्र हमारी स्कूल की इतिहास की किताबों में क्यों नही है??
11- इंग्लैंड के प्रधानमंत्री का कलकत्ता में दिया बयान जिसमें उन्होंने कहा की हमें भारत सिर्फ सुभाष चन्द्र बोस और आज़ाद हिंद फौज की वजह से छोड़ना पड़ा, हमारी इतिहास की किताबों में क्यों नही है?
12- जब लोग ये ज्ञान देते है की गांधी जी को पढ़ो, नेहरू को पढ़ो तो वही secular लोग ये क्यों नही कहते की नेता जी सुभाष चन्द्र बोस,वीर सावरकर को पढ़ो?
13- जेल से अपनी बेटी को दिन में 2 बार पत्र लिखने वाले( जवाहर लाल नेहरू )देश प्रेमी और कालापानी की सजा भुगतने वाले( महान वीर सावरकर ) अंग्रेजो के दलाल क्यों??

सवाल तो अनगिनत है लेकिन ये दावे के साथ कह सकता हूं कि एक भी सवाल का जवाब secular जमात नही देगी और अगर आप सवाल पूछ लेंगे तो आपको फासीवादी घोषित कर देगी ये जमात लेकिन आप देशभक्त लोग हिम्मत करते रहिए सवाल पूछते रहिए
जय हिन्द, भारत माता की जय ।

Sunday 5 April 2020

कश्मीरी पंडितों का कत्लेआम और सोया हुआ समाज तथा सुप्रीमकोर्ट का ढुल मुल रवैया ।

भारत में एक और बीमारी है जो कि जान लेवा है जिसको कहते है politicaly correct होना, मतलब की सभी लोग ये चाहते है कि सभी मुझको अच्छा ही कहे, चाहे उसके लिए मुझे झूठ को सच ही क्यों ना बोलना पड़े ।
इसका सबसे बड़ा उदाहरण उस समय देखने को मिला जब जम्मू कश्मीर राज्य से धारा 370 और 35A को हटाया गया,
तब कुछ polticaly correct नामक वायरस से ग्रस्त लोगों ने ये बोलना शुरू कर दिया कि
जम्मू कश्मीर की जमुरियत, कश्मीरियत और इंसानियत पर प्रहार किया गया है ।
मुझे आजतक ये समझ में नही आया कि वो कौन सी कश्मीरियत, जमुरियत और इंसानियत थी जिसकी वजह से 10000 से ज्यादा कश्मीरी पंडितों का कत्ल हुआ?? 
मुझे आजतक समझ में नही आया कि अगर जम्मू कश्मीर में इंसानियत थी तो क्यों टीका लाल टफरु को मार कर उनकी लाश के चारों ओर वहां की स्थानीय मुस्लिम जनता नाच रही थी??
अगर कश्मीर का बहुसंख्यक समुदाय इतना ही अच्छा था तो जिस रात ये कत्लेआम हुआ उस रात मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से तेज आवाजों में अजान क्यों दी जा रही थी??
वो लोग जो धारा 370 और 35A हटने पर इतना मातम मना रहे है उनसे यही सवाल है कि क्यों आप लोग कश्मीरी पंडितों के कत्लेआम पर चुप थे??

मेरा सवाल सुप्रीम कोर्ट से भी है की एक अखलाख की मौत हुई ( जो की गलत नही और उसके अपराधियों को सजा होनी ही चाहिए भारतीय सम्विधान के दायरे में ) तो सुप्रीम कोर्ट ने कहा की ये mob linching बर्दाश्त नही की जाएगी और उसका स्वतः संज्ञान भी लिया और कार्यवाही हुई उसको मुआवजा भी मिला,
लेकिन वही सुप्रीम कोर्ट गिरीजा टिक्कू जो की कश्मीरी पंडित थी किसी तरह अपनी जान बचाकर भागी थी कश्मीर से ,
उसको वापस उसके साथी मुसलमानों ने फोन करके बुलाया उसका गैंगरेप  किया और उसके शरीर के टुकड़े करके फेंक दिए तब क्यों नही बोला सुप्रीमकोर्ट की मॉबलिंचिंग नही बर्दाश्त की जाएगी ?
और तो और जब कश्मीरी पंडित 2020 में सुप्रीमकोर्ट पहुँचे की हमारी एक FIR तो करवा दीजिये कश्मीर के थानों में, तो सुप्रीमकोर्ट ने कहा की हमारे पास समय नही है इस मामले पर सुनवाई करने का और ये मामला बहुत पुराना हो चुका है ।

क्या ये सम्विधान कश्मीरी पंडितो के हितों की रक्षा के लिए नही है??
क्या गिरिजा टिक्कू , टिका लाल टफरु और हजारों कश्मीरी पंडितों की हत्या हत्या नही थी??
सवाल तो हमको उठाने पड़ेंगे तभी हमारे कश्मीरी पंडित भाइयों को न्याय मिल पायेगा ।


Saturday 4 April 2020

भारत की संसद में नेता जी की पहली तस्वीर first portrait of neta ji subhash chandra bose in indian parliament


 भारत की आज़ादी में नेता जी सुभाष चंद्र बोस जी के योगदान को जिस तरह से भुलाया गया उसको आप सिर्फ एक बात से समझ सकते है,
कि आज़ाद भारत के दूसरे प्रधानमंत्री नेहरू (क्यों की नेता जी सुभाष चंद्र बोस जी ने 21 अक्टूबर 1943 को सिंगापुर में अस्थाई आज़ाद हिन्द सरकार बनाई थी, जिसे जर्मनी, जापान, फिलीपीन्स, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड ने मान्यता दी थी ) ने पहले संबोधन (नियति से साक्षात्कार) tryst with destiny में एक बार भी नेता जी सुभाष चंद्र बोस जी का नाम तक नही लिया ।Transfer of power के तुरंत बाद1947 में भारत की संसद में एक मांग उठी की नेता जी सुभाष चंद्र बोस जी की एक तस्वीर संसद में लगाई जानी चाहिए, लेकिन आज़ाद भारत के दूसरे प्रधानमंत्री नेे उस मांग को खारिज कर दिया,
और पहली बार नेता जी सुभाष चंद्र बोस जी की तस्वीर 23 जनवरी 1978 को संसद में लगाई गयी जब भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी जी भारत के विदेश मंत्री बने ।

Tuesday 5 September 2017

श्रेष्ठ शिक्षक

उनकी करुणा में कोई कमी है नही,
योग्यता में हमारी कमी रह गयी,
सूर्य के उगने में कोई कमी है नही,
पात्रता में हमारी कमी रह गयी।

आप सभी को dr सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी के जन्मदिवस की हार्दिक शुभकामनाएं और शिक्षक दिवस की ढेर सारी बधाइयां आप सभी को

एक शिक्षक एक अध्यापक कभी भी अपने शिष्यों को सिखाने में अपनी ओर से कोई कोर कसर छोड़ता नही है। दिन रात एक दीपक की भांति स्वयं जलकर अपने शिष्य के जीवन में उजियारा करता है।
एक मोमबत्ती की भांति तिल तिल जलकर स्वयं को भले की खत्म कर दे लेकिन अपने शिष्य का साथ तबतक नही छोड़ता है , जबतक  उसके जीवन मे स्थायी उजाला ना आ जाये,,

एक बहुत ही दिलचस्प किस्सा याद आता है भारत रत्न और भारत के मिसाइल man कहे जाने वाले dr apj abdul kalam और isro के पूर्व चेयरमैन प्रोफेसर सतीश धवन का ,,

बात है 1979 की,,
एक सैटेलाइट लॉन्च के समय की,
उस मिशन के डायरेक्टर थे, डॉ ऐ पी जे अब्दुल कलाम ।

सारे विशेषज्ञ कलाम साहब से कहते रह गए कि लॉन्चिंग के लिए अभी हम तैयार नही है सिस्टम में कुछ खराबी आ गयी है,
लेकिन कलाम साहब ने लॉन्चिंग रदद् नही की, फिर हुआ वही जो होना था । वो सैटेलाइट लांचिंग fail हो गयी,

इस घटना के बाद कलाम साहब अपने cabin में अकेले बैठे हुए थे ,तभी उनके पास prof सतीश धवन आये जो कि उस समय isro के चेयरमैन थे,, कलाम साहब प्रोफेसर धवन को अंतरिक्ष विज्ञान में अपना गुरु मानते थे।

उन्होंने कलाम साहब से कहा कि चलिए बाहर प्रेस कॉन्फ्रेंस करनी है, कलाम साहब सोचने लगे असफलता का ठीकरा उनके सर ही फोड़ा जाएगा,
लेकिन हुआ इसका ठीक उल्टा प्रोफेसर धवन ने कहा कि इस असफलता की सारी जिम्मेदारी मैं लेता हूँ । मेरे ही मार्गदर्शन में ये सारा मिशन संचालित हुआ था,,
लेकिन ठीक 1 साल बाद जब वह मिशन  कलाम जी के नेतृत्व में सफल हुआ तब प्रोफेसर धवन ने कलाम साहब से कहा जी जाईये press वाले आपका इंतजार कर रहे है, और professor धवन खुद उस प्रेस कांफ्रेंस मे नही गए। और इस सफलता का सारा श्रेय कलाम साहब को मिला।

एक शिक्षक कभी भी अपनी शिष्य को उसकी असफलता में उसे अकेला नही छोड़ता है ,
बल्कि असफलता के समय सभी चुभते हुए सवालों का खुद सामना करता हैं, और सफलता के समय सभी कोमल अनुभूतियों और अनुभवों का एहसास उसको खुद करने देता है,..।।

Saturday 2 September 2017

अंतर्द्वन्द

#अंतर्द्वन्द

आज पहली बार एहसास हुआ कि, दूसरों को खोने के मुकाबले खुद को खोने का दर्द बहुत अधिक होता है।।
रोज की तरह आज भी कुछ बिछड़े हुए अजीजों की याद में खोया हुआ था,
तब याद आयी उस बिछड़े हुए विनीत की भी, जो हसमुख था,
कभी उदास नही होता था,
कभी किसी बात की इतनी चिंता नही करता था,
जिसको किसी के आने या जाने से कोई फर्क नही पड़ता था,
जिसको चिंता नही थी कि कोई उसके बारे में क्या सोचता है,
जो अपनी  धुन में मग्न रहता था,
जिसका मन एकाग्र था,
जो ज्यादा सोचता नही था,
जिसको हसने के लिए झूठी मुस्कान की जरूरत नही थी,

आज वो विनीत खो गया है,
इन विनीत को दूसरों के दूर जाने का दुख भी है,
खुद को खो देने की पीड़ा भी है,
और मन की एकाग्रता खंडित होने का कष्ट भी है।

लेकिन खुशी सिर्फ और सिर्फ इस बात की है कि,, कभी ना हार मानने का जो जज्बा उस खोये हुए विनीत में था वो इस विनीत में भी है।

अटल जी की ये कविता उस विनीत को भी याद थी, और ये विनीत भी उन पंक्तियों को भूला नही है,

टूटे हुए सपनों की सुने कौन सिसकी,
अंतर को चीर व्यथा पलको पर ठिठकी,
हार नही मानूंगा, रार नई ठानूँगा,
काल के कपाल पर लिखता मिटाता हूँ,
गीत नया गाता हूँ,गीत नया गाता हूँ।

Friday 21 July 2017

तुझको कुछ याद है क्या ??

तुझको कुछ याद है क्या
तेरे मन में अब भी कुछ बात है क्या
तू मुझको देखती है तो मुँह फेर लेती है,
तेरी पास मेरी दी हुई अब भी कुछ सौगात है क्या,

तू तो कहती है सबसे की तूने मुझको भुला दिया है,
जो थे आँखों में उन आंसुओं को जला दिया है,
तू कहती है कि , तू अब पहचानती नही मुझको,
सब कहते है कि तू अब जानती नही मुझको,

पर एक अजनबी से नजरें फेर लेना समझ नही आता है,
ये बदलाव तेरा मेरे मन को बड़ा दुखाता है,

बेशक तू सोचती है कि तूने मुझको भुला दिया,
मेरी हर यादों को अपने मन से मिटा दिया,

पर पूछ अपनी उन आंखों से, जो मुझको देख कर अब भी झुक जाती हैं
तू पूछ ना अपनी काया से, जो मेरे स्पर्श से अब भी सिहर जाती है
तू पूछ अपने उन कानों से, जो मेरी आहट को अब भी पहचान जाते हैं,
तू पूछ ना अपने बालों से, जो तेरी आँखों के ऊपर बिखर जाते हैं।

तू पूछ खुद से कि, तेरे तन को ये आलिंगन का एहसास किसका है
तू पूछ खुद से कि, मन के एक कोने में अब भी वास किसका है,
जो रह रहकर जगा देता है तुझको, वो आभास किसका है,
और पूछना कभी खुद से ,
कि सबसे पहले जिसने बाहे फैलाकर तेरा स्वागत किया वो आकाश किसका है
#विनीतमिश्राpoetry

योगेश्वर श्रीकृष्ण

                                                       ।।।।  जय श्री कृष्णा ।।।।                                                            ...